क्या आपने कभी सोचा है किहम नवरात्रों में मिटटी के बर्तन में "जो" बोते है या मिटटी का कलश , रुई की ज्योत जलाते है और फ़िर शक्ति की उपासना क्यों करते है ?
इन सबके पीछे क्या सिधांत है ये हम सब को नही पता होगा | अगर हम आदिमानव से मानव बने के इठिहास को देखे तो हम कुछ जान पाए की वोह सिधांत मानव की प्रकृति पर फत्ते की है | ये मानव ने चार कला सीखने से पाई है | आदिमानव सबसे पहले बाकि जीवो कि तरह पशु-पक्षी का घोष खाके अपनी भूख मितया करता था | इस कारण वोह बंजारों की तरह जगह-जगह घूमता-फिरता रहता था | यदि मानव एक जगह ठरेगा नही तो संस्कृति को कैसे टिका पायेगा ?
पहली जीत तब हुयी जब मानव ने अन्न को बोना और उगाना सिखा | इस प्रकार से मानव का एक जगह रुका, और ये भी सीखा की अगर कुछ बोगे तोह ही उगेगा , इसलिए हम जो यानि अन्न बोते है | दूसरी फ़तह कपास यानि वस्त्र बुनना सीखना था | इससे वह गर्मी और सर्दी में रहने में शत्षम हो पाया, इसलिए हम रुई की ज्योत इस्तिमाल करके है | तीसरी फतह अग्नि यानि आग सीखने से हुयी | इससे वह पशु-पक्षी से निडर होकर और पक्का भोजन का सेवन करने लगा, इसलिए हम अग्नि की ज्योति जलाते है | चोथा और आखरी कला जो मानव ने सीखी, जिससे वह प्रकृति पर विजय पा सका, वह है मिटटी से घडा बनने की कला | ये इसलिए जरूरी है क्योंकि अगर कुछ रखना हो कहाँ रखे ? इसलिए हम मिटटी का बर्तन या गमला में रेते में जो बोते है या मिटटी का बना कलश रखते है |
अगर प्रकृति को हम कृतज्ञता व्यत करते है | अब आप ये समझ गए है की हम नवरात्रे में पूजा ऊपर लिखित तरीके से क्यों करते है |
Sunday, October 11, 2009
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